आदमी कहाँ लड़ता है, आजकल से, लड़ती हैं उसकी मजबूरियाँ बैचेन होकर छैनी-हथौड़ी लेकर हथेली की रेखाओं की बुनावट सें, परिंदे नहीं लड़ते हैं पेड़ो से गौर से देखो… लड़ रही हैं कुछ भूखी कुल्हाड़ियाँ पेड़ो के बदन से, आदमी भी नहीं लड़ता आदमी से कुछ बोतलें लड़ती बोतलों से खुद में नशा भरकर… चंद पलो सें, मुल्क कहाँ लड़ता मुल्क से बस सियासत की कुर्सियाँ झगड़ती हैं सरहद की सीमाओं से, धूप से जमीन कहाँ लड़ती हैं बस चमकती माटी की जवानी आवाज देती रहती है मृग मरीचिका बनकर… टिल्लों सें धर्म कहाँ लड़ता मजहब से बस अतुकान्त श्रेष्ठता लड़ती हैं तुकांत अंतःकरणों से ईश्वर बनकर… इंसानों से चुनाव में प्रत्याशी कहाँ लड़ता हैं वास्तविक युद्ध… मगर वोटर लड़ जाते हैं वोटर सें एक अघोषित युद्ध… हथियारों से कोई किसी से नही लड़ता हैं बस भ्रम का अपवर्तन लड़ता हैं आदमी बनकर… दुनिया सें – बिलाल पठान ‘वास्कोडिगामा’ बिलाल पठान जी की प्रमुख रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
आदमी कहाँ लड़ता है, आजकल से
आदमी कहाँ लड़ता है, आजकल से,
लड़ती हैं उसकी मजबूरियाँ
बैचेन होकर छैनी-हथौड़ी लेकर
हथेली की रेखाओं की बुनावट सें,
परिंदे नहीं लड़ते हैं पेड़ो से
गौर से देखो…
लड़ रही हैं कुछ भूखी कुल्हाड़ियाँ
पेड़ो के बदन से,
आदमी भी नहीं लड़ता आदमी से
कुछ बोतलें लड़ती बोतलों से
खुद में नशा भरकर… चंद पलो सें,
मुल्क कहाँ लड़ता मुल्क से
बस सियासत की कुर्सियाँ झगड़ती हैं
सरहद की सीमाओं से,
धूप से जमीन कहाँ लड़ती हैं
बस चमकती माटी की जवानी
आवाज देती रहती है
मृग मरीचिका बनकर… टिल्लों सें
धर्म कहाँ लड़ता मजहब से
बस अतुकान्त श्रेष्ठता लड़ती हैं
तुकांत अंतःकरणों से
ईश्वर बनकर… इंसानों से
चुनाव में प्रत्याशी कहाँ लड़ता हैं
वास्तविक युद्ध…
मगर वोटर लड़ जाते हैं वोटर सें
एक अघोषित युद्ध… हथियारों से
कोई किसी से नही लड़ता हैं
बस भ्रम का अपवर्तन लड़ता हैं
आदमी बनकर… दुनिया सें
– बिलाल पठान ‘वास्कोडिगामा’
बिलाल पठान जी की प्रमुख रचनाएँ
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