बर्बादियों की फ़सल उगाने लगे हैं लोग बारूद खेत-खेत बिछाने लगे हैं लोग इन्सानियत की उठती हैं हर रोज़ अर्थियाँ मासूम बस्तियों को जलाने लगे हैं लोग शैतान को भी देख के आने लगी है शर्म किरदार अपना इतना गिराने लगे हैं लोग अख़बार में हैं रोज़ फसादों की सुर्खियाँ नफ़रत की आग जब से लगाने लगे हैं लोग तेहज़ीब जिनका गहना था और शर्म था लिबास उनको बरहना नाच नचाने लगे हैं लोग गुलदान-इत्रदान-गलीचे कहाँ है अब तीरों-कमाँ से घर को सजाने लगे हैं लोग ‘सागर’ जो इत्तेहाद की करने लगा है बात दीवाना कह के इसको बुलाने लगे हैं लोग – डॉ. इक़बाल ‘सागर’ डॉ. इक़बाल 'सागर' जी की रचना [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
बर्बादियों की फ़सल उगाने लगे हैं लोग
बर्बादियों की फ़सल उगाने लगे हैं लोग
बारूद खेत-खेत बिछाने लगे हैं लोग
इन्सानियत की उठती हैं हर रोज़ अर्थियाँ
मासूम बस्तियों को जलाने लगे हैं लोग
शैतान को भी देख के आने लगी है शर्म
किरदार अपना इतना गिराने लगे हैं लोग
अख़बार में हैं रोज़ फसादों की सुर्खियाँ
नफ़रत की आग जब से लगाने लगे हैं लोग
तेहज़ीब जिनका गहना था और शर्म था लिबास
उनको बरहना नाच नचाने लगे हैं लोग
गुलदान-इत्रदान-गलीचे कहाँ है अब
तीरों-कमाँ से घर को सजाने लगे हैं लोग
‘सागर’ जो इत्तेहाद की करने लगा है बात
दीवाना कह के इसको बुलाने लगे हैं लोग
– डॉ. इक़बाल ‘सागर’
डॉ. इक़बाल 'सागर' जी की रचना
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