खानाबदोश है कई इस जग में
उजरी धरती पे,गदले नभ नीचे,
वे ही बचा रहे एक सभ्यता
अपने करारे कर्म की कुदाल चलाकर
बचा रहे लुप्त होती एक विरासत को
जी रहे उसूलो की छाया में,
फटे पुराने खानदानी कबीलायाई तिरपाल को
नये जमाने की आँधी तुफान से
जख्मी होने से बचा रहे हैं,
पुराने यायावर साँपों पर नये दौर
की केचुँलीयां आने को उतारू हैं
लेकिन एक मुद्दत से ये बंजारे
बगावत की कनात तान कर
चलते फिरते मकानो में यायावर
को समेटकर जिंदा रख रखा हैं,
खाक छानते बंजर खेतो के सीनो पर
बीमार नदियों के किनारो पर
उहापोह के तम्बू लगा रहे हैं,
गरीब सी आजा़दी की गुलुबंद गले में डाले डाले
डोल रहे हैं इस डाँवाडोल सी
जिन्दगीं में……..
किसी नई सभ्यता की खोज में
या जर्जर नकारा कबीले को बचाने
कि होड़ में,
चंद झुरमुट भेड़ बकरीयों को लादे
एक अलसाया कुत्ता दो आवारा मुर्गीयाँ
एक तारकशी लठ तेल पिलाया हुआ
आदि को लेकर खानाबदोश जमीं
को नाप रहे है बिवाईदार पदचापों से,
दिन दहाड़े सूरज से लड़ाई करते करते….
बुढे दिन के बाद नन्हीं रात होते ही
तलाशते है आँख के दरवाजे बंद
करने के लिए सराय खाना………
इन तारों की तिलमिलाहट से भरे आसमाँ के तले……
रोज यूँ ही पठार सी रात काट कर
जवान सुबह में ही फिर कायनात का काढा पीने
निकल जाते ह़ैं……बेकसुर जिन्दगी को फिर सताने
ये खानाबदोश………
पर आजादी की घंटी से आती आवाज बड़ी मधुर लगती हैं,
शहरी सभ्यता के कई पहलू आज भी यायावरी
की ओर अग्रसर हैं,
समाज के कैरम बोर्ड से आज भी आज़ाद हैं
ये यायावर
खानाबदोश है कई इस जग में
खानाबदोश है कई इस जग में
उजरी धरती पे,गदले नभ नीचे,
वे ही बचा रहे एक सभ्यता
अपने करारे कर्म की कुदाल चलाकर
बचा रहे लुप्त होती एक विरासत को
जी रहे उसूलो की छाया में,
फटे पुराने खानदानी कबीलायाई तिरपाल को
नये जमाने की आँधी तुफान से
जख्मी होने से बचा रहे हैं,
पुराने यायावर साँपों पर नये दौर
की केचुँलीयां आने को उतारू हैं
लेकिन एक मुद्दत से ये बंजारे
बगावत की कनात तान कर
चलते फिरते मकानो में यायावर
को समेटकर जिंदा रख रखा हैं,
खाक छानते बंजर खेतो के सीनो पर
बीमार नदियों के किनारो पर
उहापोह के तम्बू लगा रहे हैं,
गरीब सी आजा़दी की गुलुबंद गले में डाले डाले
डोल रहे हैं इस डाँवाडोल सी
जिन्दगीं में……..
किसी नई सभ्यता की खोज में
या जर्जर नकारा कबीले को बचाने
कि होड़ में,
चंद झुरमुट भेड़ बकरीयों को लादे
एक अलसाया कुत्ता दो आवारा मुर्गीयाँ
एक तारकशी लठ तेल पिलाया हुआ
आदि को लेकर खानाबदोश जमीं
को नाप रहे है बिवाईदार पदचापों से,
दिन दहाड़े सूरज से लड़ाई करते करते….
बुढे दिन के बाद नन्हीं रात होते ही
तलाशते है आँख के दरवाजे बंद
करने के लिए सराय खाना………
इन तारों की तिलमिलाहट से भरे आसमाँ के तले……
रोज यूँ ही पठार सी रात काट कर
जवान सुबह में ही फिर कायनात का काढा पीने
निकल जाते ह़ैं……बेकसुर जिन्दगी को फिर सताने
ये खानाबदोश………
पर आजादी की घंटी से आती आवाज बड़ी मधुर लगती हैं,
शहरी सभ्यता के कई पहलू आज भी यायावरी
की ओर अग्रसर हैं,
समाज के कैरम बोर्ड से आज भी आज़ाद हैं
ये यायावर
–बिलाल पठान
बिलाल पठान जी की रचनाएँ
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