एक इन्सान का जिस्म
सड़क पर खुले आम
बोटियों में बाँटकर
कर दिया गया
लावारिस जानवरों के नाम
लोंगो ने या तो
उधर से गुजरते हुए
आँखे मूँद लीं
उपेक्षा से
या तो फिर खड़े रहे
चुपचाप मूक दर्शक बनकर
तमाशा बीन की तरह
और कर भी क्या सकते थे बेचारे
बोलते तो वो भी जाते मारे
एक इन्सान का जिस्म
एक इन्सान का जिस्म
सड़क पर खुले आम
बोटियों में बाँटकर
कर दिया गया
लावारिस जानवरों के नाम
लोंगो ने या तो
उधर से गुजरते हुए
आँखे मूँद लीं
उपेक्षा से
या तो फिर खड़े रहे
चुपचाप मूक दर्शक बनकर
तमाशा बीन की तरह
और कर भी क्या सकते थे बेचारे
बोलते तो वो भी जाते मारे
क्योंकि कायम है आज
सारी दुनियाँ में जंगल-राज
– गोविन्द व्यथित
गोविन्द व्यथित जी की कविता
गोविन्द व्यथित जी की रचनाएँ
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