जमीन पर गड़े पत्थर ने
अचानक दिया रोक
पाँवों को एक
करारी ठोकर लगी
दर्द से कराह उठा
तन्द्रा भागी, देखा उसे
लगा, वह अविचलित सा
अपने स्थान पर
ठहाके लगा रहा हो
हमारे अज्ञान पर
चिढ़ा रहा हो
उसे मानव ने ही तो
इस तरह असहाय फेंक दिया
निज प्रयत्न से उसने
स्वयं को प्रतिष्ठित किया
मैने सोचा
मुझे भी तो
असहाय छोड़ा सबने
विमुख हो गये अपने
तब अनुभव हुआ
यह पाषाण,
मानव से है कहीं बेहतर
मै उसे वैसा ही छोड़कर
आगे चल पड़ा
पत्थर वहीँ रहा पूर्ववत खड़ा
हमने भी दूसरों सा ही किया बर्ताव
सोचता रहा, चलता गया
आह पाषाण मानव
जमीन पर गड़े
जमीन पर गड़े पत्थर ने
अचानक दिया रोक
पाँवों को एक
करारी ठोकर लगी
दर्द से कराह उठा
तन्द्रा भागी, देखा उसे
लगा, वह अविचलित सा
अपने स्थान पर
ठहाके लगा रहा हो
हमारे अज्ञान पर
चिढ़ा रहा हो
उसे मानव ने ही तो
इस तरह असहाय फेंक दिया
निज प्रयत्न से उसने
स्वयं को प्रतिष्ठित किया
मैने सोचा
मुझे भी तो
असहाय छोड़ा सबने
विमुख हो गये अपने
तब अनुभव हुआ
यह पाषाण,
मानव से है कहीं बेहतर
मै उसे वैसा ही छोड़कर
आगे चल पड़ा
पत्थर वहीँ रहा पूर्ववत खड़ा
हमने भी दूसरों सा ही किया बर्ताव
सोचता रहा, चलता गया
आह पाषाण मानव
– गोविन्द व्यथित
गोविन्द व्यथित जी की रचनाएँ
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