वो आँखों पे ज़ुल्फ़ों के पहरे बिठाये
कभी ख़ुद हँसे अरु मुझे भी हँसाये
मेरे गीत अपने लबों पर सजाये
कभी दिन ढले भी मेरे घर में आये
लगे जेठ सावन का जैसे महीना ।
थी क़ुर्बान मुझ पर भी ऐसी हसीना ।।
कभी मुझको चूमे वो नज़दीक आकर
कभी रूठ जाये ज़रा मुस्कुरा कर
मेरी मौत का जैसे सामाँ जुटा कर
मुझे देखती थी वो नज़रें चुराकर
ये उसका करम बस रहा इक महीना ।
थी क़ुर्बान मुझ पर भी ऐसी हसीना ।।
हज़ारों सितम आज़माये थे उसने
बड़े नाज़ नखरे दिखाये थे उसने
बना के मकाँ कैसे ढाये थे उसने
सदा हुक़्म अपने चलाये थे उसने
समझ पाया उसको मैं तो कभी ना ।
थी क़ुर्बान मुझ पर भी ऐसी हसीना ।।
वो आँखों पे ज़ुल्फ़ों के पहरे बिठाये
वो आँखों पे ज़ुल्फ़ों के पहरे बिठाये
कभी ख़ुद हँसे अरु मुझे भी हँसाये
मेरे गीत अपने लबों पर सजाये
कभी दिन ढले भी मेरे घर में आये
लगे जेठ सावन का जैसे महीना ।
थी क़ुर्बान मुझ पर भी ऐसी हसीना ।।
कभी मुझको चूमे वो नज़दीक आकर
कभी रूठ जाये ज़रा मुस्कुरा कर
मेरी मौत का जैसे सामाँ जुटा कर
मुझे देखती थी वो नज़रें चुराकर
ये उसका करम बस रहा इक महीना ।
थी क़ुर्बान मुझ पर भी ऐसी हसीना ।।
हज़ारों सितम आज़माये थे उसने
बड़े नाज़ नखरे दिखाये थे उसने
बना के मकाँ कैसे ढाये थे उसने
सदा हुक़्म अपने चलाये थे उसने
समझ पाया उसको मैं तो कभी ना ।
थी क़ुर्बान मुझ पर भी ऐसी हसीना ।।
– विनय साग़र जायसवाल
विनय साग़र जायसवाल जी की महबूब पर नज़्म
विनय साग़र जायसवाल जी की रचनाएँ
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