धैर्य पर यहाँ स्वयम के तू अभी न वार कर पुकारता है तू किसे ठहर जरा विचार कर । बदल सके तो ले बदल नयन के दृश्यमान को जो धूंध थी धुआँ धुआँ तलाशती है ज्ञान को तू बोझ ले के फिर रहा गली गली गुबार का कभी तो बोझ ओढ़ ले वसीयतों में प्यार का ।। अगन अगन झुलस रही वदन बदन है यामिनी विचार के आचार में गयी कहा ये स्वामिनी । तू ओढ़ कर के शर्वरी पुकारता है भोर को तू काट छद्म बंधना पकड़ ले ब्रह्म डोर को तू मन्दिरो का त्याग कर तू मूर्तियों को छोड़ दे सजग है जग की अर्चना तू कर्मणा को मोड़ दे । तू त्याग सारी वर्जना उपासना में प्रीत ले फिर देख आंगणा तेरे तू एक नूतन जीत ले । तू प्रीत लेके चल मगर तू प्रीत में ही जल रहा क्षणिक है वासना बदन झींगुर सा मचल रहा !! जो कामना हो इष्ट की तो प्रकृति को जान ले मिला ले स्वर में स्वर उसी का रागिनी को तान ले तू अर्चना में व्योम ले असंख्य संख्य दीप की सिहर रही समुद्र में प्रसव कराह सीप की । तू निर्झरो का नाद सुन तू राग सुन प्रवाह का जो हो सके तो आत्म में उठा ले प्रश्न चाह का । तू जान क्या रहस्य है प्राची की मुस्कान का तू पूछ लालिमा से प्रश्न सांध्य के अवसान का जो हो सके तो बात कर दिवाकरो के ताप से । जो हो सके तो दो घड़ी तू बात कर ले आप से गले लगा मनुष्य को मनुष्यता उँकेर दे तू सागरो को नीर दे तू मेघ को बिखेर दे तू करवटों को भूल जा तू सलवटों को त्याग दे जला दे मन की विकृति तू बिन – इसको आग दे यशस्वी कामनाए लिख भवन भुवन प्रशांति जो बस गयी हो धीर में वही है विश्व शांति ।। उदघोष कर तू युद्ध का पर धेय में परमार्थ हो स्वयम बनेंगे सारथी वो कृष्ण जो तुम पार्थ हो मेड का संगीत या की उपवनों का गीत हो इष्ट की उपासना में बांसुरी मय प्रीत हो जो जुड़ रहा अगर कहीं चरित्र राधा सा बना ये पूर्णता में पूर्ण का कोई चित्र आधा सा बना विचार की निहार्थता रहे कभी कमी लिए तू व्योम का वितान लिख सरस् जलद नमी लिए जो हो सके तो दे धता तू मेघ की नमी बता मनुष्यता की उर्वरा को व्योम का पता बता तू गा ले चाहे कोई धुन पर ओस का प्रकल्प चुन बता दे स्वाति बूँद को तू सीप की कराह सुन । जो हो सके अनुभूत कर पराए दर्द की चुभन मिला ले स्वर में स्वर उसे अगन तपन छुअन चुभन प्रभातियो के गीत गा वही तो मन के श्लोक है यही सभी करम धरम यही ये तीनो लोक है तू पर्वतों को चीर दे बहा दे स्वेद की नदी उगा दे अन्न बिज से मिटे क्षुधा जगे सदी बना ले बाती कर्म को जला दिया विवेक का भले निशांत पथ खड़े उजास हो अनेक का नही समर्थ व्यख्या कोई सिवाय कर्म के असंख्य धर्म ग्रन्थ में दृष्टांत सारे मर्म के बढा कदम तो माप ले अथाह थाह सिन्धु की समग्रता को पी गयी धरा जो एक बिंदु की । तू रोशनी के छंद लिख तू गन्ध लिख बयार की तू खुशबुओं के गीत गा महक उड़ा दयार की ।। यह गहनता है जिंदगी की सिंधु उफना पार कर ।। पुकारता है तू किसे ठहर ज़रा विचार कर ।। – जय वैरागी डॉ. जय वैरागी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
धैर्य पर यहाँ स्वयम के तू अभी न वार कर
धैर्य पर यहाँ स्वयम के तू अभी न वार कर
पुकारता है तू किसे ठहर जरा विचार कर ।
बदल सके तो ले बदल
नयन के दृश्यमान को
जो धूंध थी धुआँ धुआँ
तलाशती है ज्ञान को
तू बोझ ले के फिर रहा
गली गली गुबार का
कभी तो बोझ ओढ़ ले
वसीयतों में प्यार का ।।
अगन अगन झुलस रही
वदन बदन है यामिनी
विचार के आचार में
गयी कहा ये स्वामिनी ।
तू ओढ़ कर के शर्वरी
पुकारता है भोर को
तू काट छद्म बंधना
पकड़ ले ब्रह्म डोर को
तू मन्दिरो का त्याग कर
तू मूर्तियों को छोड़ दे
सजग है जग की अर्चना
तू कर्मणा को मोड़ दे ।
तू त्याग सारी वर्जना
उपासना में प्रीत ले
फिर देख आंगणा तेरे
तू एक नूतन जीत ले ।
तू प्रीत लेके चल मगर
तू प्रीत में ही जल रहा
क्षणिक है वासना बदन
झींगुर सा मचल रहा !!
जो कामना हो इष्ट की
तो प्रकृति को जान ले
मिला ले स्वर में स्वर उसी का
रागिनी को तान ले
तू अर्चना में व्योम ले
असंख्य संख्य दीप की
सिहर रही समुद्र में
प्रसव कराह सीप की ।
तू निर्झरो का नाद सुन
तू राग सुन प्रवाह का
जो हो सके तो आत्म में
उठा ले प्रश्न चाह का ।
तू जान क्या रहस्य है
प्राची की मुस्कान का
तू पूछ लालिमा से प्रश्न
सांध्य के अवसान का
जो हो सके तो बात कर
दिवाकरो के ताप से ।
जो हो सके तो दो घड़ी
तू बात कर ले आप से
गले लगा मनुष्य को
मनुष्यता उँकेर दे
तू सागरो को नीर दे
तू मेघ को बिखेर दे
तू करवटों को भूल जा
तू सलवटों को त्याग दे
जला दे मन की विकृति
तू बिन – इसको आग दे
यशस्वी कामनाए लिख
भवन भुवन प्रशांति
जो बस गयी हो धीर में
वही है विश्व शांति ।।
उदघोष कर तू युद्ध का
पर धेय में परमार्थ हो
स्वयम बनेंगे सारथी
वो कृष्ण जो तुम पार्थ हो
मेड का संगीत या की
उपवनों का गीत हो
इष्ट की उपासना में
बांसुरी मय प्रीत हो
जो जुड़ रहा अगर कहीं
चरित्र राधा सा बना
ये पूर्णता में पूर्ण का
कोई चित्र आधा सा बना
विचार की निहार्थता
रहे कभी कमी लिए
तू व्योम का वितान लिख
सरस् जलद नमी लिए
जो हो सके तो दे धता
तू मेघ की नमी बता
मनुष्यता की उर्वरा को
व्योम का पता बता
तू गा ले चाहे कोई धुन
पर ओस का प्रकल्प चुन
बता दे स्वाति बूँद को
तू सीप की कराह सुन ।
जो हो सके अनुभूत कर
पराए दर्द की चुभन
मिला ले स्वर में स्वर उसे
अगन तपन छुअन चुभन
प्रभातियो के गीत गा
वही तो मन के श्लोक है
यही सभी करम धरम
यही ये तीनो लोक है
तू पर्वतों को चीर दे
बहा दे स्वेद की नदी
उगा दे अन्न बिज से
मिटे क्षुधा जगे सदी
बना ले बाती कर्म को
जला दिया विवेक का
भले निशांत पथ खड़े
उजास हो अनेक का
नही समर्थ व्यख्या
कोई सिवाय कर्म के
असंख्य धर्म ग्रन्थ में
दृष्टांत सारे मर्म के
बढा कदम तो माप ले
अथाह थाह सिन्धु की
समग्रता को पी गयी
धरा जो एक बिंदु की ।
तू रोशनी के छंद लिख
तू गन्ध लिख बयार की
तू खुशबुओं के गीत गा
महक उड़ा दयार की ।।
यह गहनता है जिंदगी की सिंधु उफना पार कर ।।
पुकारता है तू किसे ठहर ज़रा विचार कर ।।
– जय वैरागी
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