साथ निकले थे जिनके हमसफ़र समझ के, मंज़िलें उनकी हमसे जुदा थीं। सफ़र जो ज़िंदगी से शुरू हुआ था अपना, मौत तक साथ चलने की बात थी। राहें उनकी हमसे कुछ ऐसे जुदा हुई, अजनबी से हो गए जो अपने थे कभी। तनहाइयाँ कुछ ऐसी मिलीं उनसे, जो कभी ज़िंदगी कहते थे हमें। – एकता खान एकता खान जी की कविता एकता खान जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
साथ निकले थे जिनके
साथ निकले थे जिनके
हमसफ़र समझ के,
मंज़िलें उनकी
हमसे जुदा थीं।
सफ़र जो ज़िंदगी से
शुरू हुआ था अपना,
मौत तक साथ
चलने की बात थी।
राहें उनकी हमसे
कुछ ऐसे जुदा हुई,
अजनबी से हो गए
जो अपने थे कभी।
तनहाइयाँ कुछ
ऐसी मिलीं उनसे,
जो कभी ज़िंदगी
कहते थे हमें।
– एकता खान
एकता खान जी की कविता
एकता खान जी की रचनाएँ
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