शक्ल से ही बस कबाड़ी लगता है आदमी लेकिन जुगाड़ी लगता है जिस अदा से है हराया खुद को ही खेल का उससे, खिलाडी लगता है वो पता अपना अगरचे ना भी दे आदतन पूरा तिहाड़ी लगता है भेदिया जब भी चुराये मां का धन पेड़ पर चलती कुल्हाड़ी लगता है काम बाबूगिरी, रहे पर अफसर सा घूस में शायद अगाड़ी लगता है दोस्तों में रंग उड़ा है उसका यूं छोड़कर आया दिहाड़ी लगता है शातिरों के इस जहां में तो शायर जन्म का मूरख अनाड़ी लगता है – इक़बाल हुसैन “इक़बाल” इक़बाल हुसैन “इक़बाल” जी की ग़ज़ल इक़बाल हुसैन “इक़बाल” जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
शक्ल से ही बस कबाड़ी लगता है
शक्ल से ही बस कबाड़ी लगता है
आदमी लेकिन जुगाड़ी लगता है
जिस अदा से है हराया खुद को ही
खेल का उससे, खिलाडी लगता है
वो पता अपना अगरचे ना भी दे
आदतन पूरा तिहाड़ी लगता है
भेदिया जब भी चुराये मां का धन
पेड़ पर चलती कुल्हाड़ी लगता है
काम बाबूगिरी, रहे पर अफसर सा
घूस में शायद अगाड़ी लगता है
दोस्तों में रंग उड़ा है उसका यूं
छोड़कर आया दिहाड़ी लगता है
शातिरों के इस जहां में तो शायर
जन्म का मूरख अनाड़ी लगता है
– इक़बाल हुसैन “इक़बाल”
इक़बाल हुसैन “इक़बाल” जी की ग़ज़ल
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