ख्याति प्राप्त शायर व रचनाकार इरशाद अज़ीज़ जी का साहित्य जगत में एक अलग मुक़ाम है। ‘डर है खो जाने का घर में’ अज़ीज़ साहब की बेहतरीन हिंदी काव्य पुस्तक है जिसमें उनकी एक से बढ़कर एक कविताओं का संग्रह है। आप उनके इस काव्य संकलन को यहाँ से खरीद सकते हैं।
उत्तरआधुनिक विमर्श के शोर में परम्परा के स्वर कविता और समाज में धीमे पड़ते सुनाई देते हैं तो जड़ों की पहचान लिए हुए रचनाकार इसके प्रति स्वाभाविक रूप से चिंतित हैं। परम्परा को रूढ़ि की तरह ढोने वाले और आधुनिक विमर्श के तर्क पर परम्परा को तार-तार करने वाले दो अतिवादी ध्रुवों के बीच संतुलन साधना हमारे समय के कविता की बड़ी चुनौती हैं। इरशाद अज़ीज़ इस संतुलन की राह में धीरे लेकिन मजबूती से बढ़ते हुए रचनाकार हैं।
‘डर है खो जाने का घर में’ की रचनाएँ अपने शीर्षक के अनुरूप एक तरफ बाहर की आपाधापी को तर्क की कसौटी पर परखती है तो वहीं दूसरी तरफ कुछ न करने और घर में कैद विमर्शों को भी खुली चुनौती देती है। समाज, देश और व्यक्ति इन रचनओं के केंद्र में हैं।
इरशाद जानते हैं की परम्परा को नए और आधुनिक सन्दर्भ में देने का यह कतई अर्थ नहीं हैं कि जो पुराना है उसे ‘सब बुरा’ कहकर खारिज़ कर दिया जाय और ऐसा भी नहीं कि जो कह दिया गया अंतिम है। परम्परा ने विमर्श और कविता को जहाँ लाकर छोड़ा है संग्रह का कवि उसे ठीक उसी सिरे से पकड़ना चाहता है। ऐसा करते हुए वह उन विडम्बनाओं और विरोधाभास से जूझता है जो उसके समय का कटु सत्य है।
ज़माने भर को जो आंखें दिखाया करता था
न जाने ख़ुद से वो अब क्यों डरा-डरा सा है।
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