उम्र ढलान पर है बेशुमार ख़्वाब आंखों में जगमगाते हैं उड़ाते हैं मज़ाक बेबसी का यही तमाशा है ज़िन्दगी का उम्र के इस पड़ाव पर जो छूट गया जो रूठ गया वो और उसकी खुशियां मुझसे थीं वो मजबूरियां वो दूरियां वो तड़पना वो लड़ना-झगड़ना वो मिलने का सुकून वो उम्र का जुनून वो दुनिया [...]
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मगर तुम नहीं
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कुए का दु:ख
जीवन मुस्कराता था इसके आस-पास परिंदों के झुंड गाते थे प्रेम के गीत कितने हरे-भरे थे वो खेत-खलिहान वो पेड़ पेड़ों पर लगे झूले झूलों पर झूलता बचपन चारों तरफ़ से इठलाती बलखाती बतियाती राहें आती थीं इस तरफ़ अब सन्नाटा पसरा है इसकी मुंडेर पर कोई भी नहीं आता भूले से भी इसके सूनेपन [...] More -
इतना क्यूं रोती हो
तुम जब हंसती हो तो भर जाती है तुम्हारी आंखें मन में ठहरे दु:ख के कारण तो नहीं हां जब नहीं रोती हो तब भी ऐसा ही देखा है मैंने तुम्हारे होठ भी सुलगने लगते हैं इन आंसुओं की चपेट में आकर देखो! अपनी हथेलियां मत जला लेना तुम इतना क्यूं रोती हो क्या तुमने [...] More -
हां जानता हूं तुम्हारा दर्द
मेरे एक इशारे पर क्यूं कर देती हो अपने-आपको मेरे हवाले कभी तो टूटने दो मेरे सब्र का बांध क्यूं बरसाने लगती हो अपना प्रेम मुझ रेगिस्तान पर मेरी यह प्यास तो सांसों के साथ ही ख़त्म होगी हां जानता हूं तुम्हारा दर्द हर बार कुर्बान जो कर देती हो अपनी प्यास मेरी प्यास पर [...] More -
मैं तुम्हारा ख़याल हूं
मैं तुम्हारा ख़याल हूं तो हक़ीक़त कोई और है अगर हक़ीक़त हूं तो ख़याल कोई दूसरा जाने दो दिमाग पर जोर मत डालो जब तुम्हारा ख़याल और हक़ीक़त एक हो जाये तो बताना मुझे मैं तुम्हारा कौन हूं ख़याल हूं हक़ीक़त हूं या कुछ भी नहीं | - इरशाद अज़ीज़ इरशाद अज़ीज़ जी की नज़्म [...] More -
जैसा तुम सोचती हो
जैसा तुम सोचती हो वैसी नहीं है यह दुनिया न ही तुम वैसी हो जैसा तुम्हें देखना चाहती है यह बहुत ग़ुस्सा आता है इसे जब तुम खिल-खिलाकर हंसती हो देखती हो ख़्वाब जब तुम खुलकर सांस लेती हो तो इसका दम घुटने लगता है जब तुम सिर उठाने की बात करती हो तो सांप [...] More -
सांसों की सिलाई
ज़िन्दगी बुनती है बेशुमार ख़्वाब मगर चह किसकी सुनती है दौड़ती जाती है उधेड़ते हुए सांसों की सिलाई अपने ही लिबास की और छोड़ जाती है यादों के कुछ रंग वक़्त की धूप में धीरे- धीरे उड़ जाने को | - इरशाद अज़ीज़ इरशाद अज़ीज़ जी की नज़्म इरशाद अज़ीज़ जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर [...] More -
कितनी उलझी हुई लगती हो
मैं तुम्हें जितना भी जान पाया हूं और जानना चाहता हूं तुम्हारा कहा हुआ आधा सच और झूठ पूरा-पूरा तुम जब बोलती हो तो तुम्हारे शब्दों के बीच का खालीपन तुम्हारी धीमी होती आवाज़ बहुत कुछ बयान कर देती है जो तुम चाहकर भी कह नहीं पाती कितनी उलझी हुई लगती हो तुम सुलझी हुई [...] More -
तुम्हें सोचता हूं तो
तुम्हें सोचता हूं तो भूल जाता हूं ख़ुद को मेरा होना याद ही नहीं रहता मुझे कई बार हां जानता हूं तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होता होगा कई बार मेरी तरह तुम भी ख़ुद को याद करने की कोशिश करती होगी देखती होगी अपने कमरे में बेतरतीब रखी चीजों को मुझ में खोई कितनी [...] More