मैं हूँ व्यथा का बोझ सखी तू फुलवारी कोमल उपवन की । मैं बोली चट्टानों जैसी तू भाषा गिरते सावन की ।। मैं लघु की हूँ जटिल बनावट तू वृहद का सीधापन है पोलापन हूँ मैं अम्बर का तू जगती का स्वर्णिम कण है ।। मैं दिग्भ्रान्त अनन्त प्रिये तू वसुधा है अमृत मंथन की [...]
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मैं हूँ व्यथा का बोझ सखी
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धैर्य पर यहाँ स्वयम के तू अभी न वार कर
धैर्य पर यहाँ स्वयम के तू अभी न वार कर पुकारता है तू किसे ठहर जरा विचार कर । बदल सके तो ले बदल नयन के दृश्यमान को जो धूंध थी धुआँ धुआँ तलाशती है ज्ञान को तू बोझ ले के फिर रहा गली गली गुबार का कभी तो बोझ ओढ़ ले वसीयतों में प्यार [...] More -
फिर वही माझी खड़ा है फिर वही पतवार मेरी
कश्तियों ने आज तट से फिर मुझे गुंजन सुनाई फिर कोई ललकार तट की धारियों से छन के आयी सिंधु की अवगाहना के स्वर घुमड़ते ज्वार जैसे प्रश्न की अभ्यर्थनाएँ जाए बस उस पार कैसे । उर्मिया जब राह में नित तांडवी अलाप गाए ओर घन की रागिनी भी राह में जब नित्य आये । [...] More