Tag Archives: गोविन्द व्यथित

  • मन का विकार, गोविन्द व्यथित

    यह कैसी विडम्बना होगी कि

    यह कैसी विडम्बना होगी कि अंधों की जमात में शामिल होने के लिए तुम्हें भी अपनी आँखों फोड़नी होंगी अपंगों के साथ चलने के लिए तुम्हें भी अपने कंधे बैसाखियों के सहारे टाँगने होंगे भले ही यह सब अभिनय मात्र के लिए करना पड़े लेकिन जो कुछ भी तुम्हारे पास है सब छोड़ना होगा सूखे [...] More
  • शिक्षा का महत्व, गोविन्द व्यथित

    गुरूदेव का अभिनन्दन और स्वागत-सत्कार

    गुरूदेव का अभिनन्दन और स्वागत-सत्कार पहनाकर जूतों का हार नंगे पाँव परेड कराना छात्रों की एक आम सभा बुलाना स्वागत कर्ताओं के प्रति धन्यवाद प्रस्ताव लाना वे लोग है कतई नासमझ जो कहें इसे दुर्व्यवहार अरे भाई फूलों का हार मौके पर न हुआ तैयार तो जूतों की ही सही माला किसी तरह काम तो [...] More
  • मैं नींद भर सो नहीं सकता

    मैं नींद भर सो नहीं सकता आँखों की नींद कहीं दूर किसी कोने में जा छिपी है जिसे खोजते-खोजते सिर चकराने लगा है दिमाग भी निष्क्रियता की और जाने लगा है हड़ताली मजदूर की तरह काम बन्द करके बैठ गया है तबीयत बेचैन सी हो गयी है शांति, कहीं खो गयी है | -गोविन्द व्यथित [...] More
  • रावण कब मरेगा, गोविन्द व्यथित

    अभी तो लंका दहन भी शेष है

    अभी तो लंका दहन भी शेष है पहले इसको होना है हनुमान की बढ़ती हुई पूँछ को किरासिन तेल, डीजल और घी से भिंगोना है यार कपड़े की भी कमी का रोना है खतरे के डर से पहले ही से बिजली का मेन स्विच आफ है जलती आग बुझने न पाये आसमान भी साफ है [...] More
  • सर्कस पर कविता, गोविन्द व्यथित

    सर्कस का सातवाँ बौना

    सर्कस का सातवाँ बौना दिखाता था अच्छे-अच्छे खेल यों तो सर्कस में कुछ मिलाकर थे आठ बौने लेकिन उसके आगे सब फेल तीसरे बौने ने किया काफी परिश्रम उसकी कला में यधपि हुआ बहुत विकास किन्तु सातवें से थोड़ा कम छठाँ भी काफी तेजी से प्रगति की ओर बढ़ा जा रहा सफलता की ऊँची सीढ़ियों [...] More
  • स्टेशन का सिग्नल, गोविन्द व्यथित

    लाल-लाल आँखों से अपलक घूरता

    लाल-लाल आँखों से अपलक घूरता स्टेशन का आउटर सिगनल किसी गाड़ी के आने की सूचना पाते ही चौकस होकर हरा हो जाता है त- ड़-त-ड़-ध-ड़-ध-ड़ गाड़ी आती है और उसे पार करके स्टेशन पर रुकती है तत्काल विवश बेकल लाल-लाल आँखों से फिर घूरने लग जाता है स्टेशन का आउटर सिगनल स्टार्टर सिगनल के हरा [...] More
  • मन की बात पर कविता, गोविन्द व्यथित

    मेरे होंठ कड़वा से कड़वा घूंट पीकर भी

    मेरे होंठ कड़वा से कड़वा घूंट पीकर भी शान्ति का नाम लेते हैं | मेरी आँखें सब कुछ देखते हुए भी कुछ न देखने का अभिनय करती हैं | मेरे कान सब कुछ सुनते हैं मगर लगता है जैसे इन्होंने क्छ सुना ही नहीं मेरा चेहरा रहस्यों के तानों-बानों के ऐसे परदे के पीछे छिपा [...] More
  • चापलूसी पर कविता, गोविन्द व्यथित

    कहना यह है की……छोड़िये

    कहना यह है की...... छोड़िये चापलूसी, चमचागिरी अलंकारिक भाषणों की नेतागिरी मात्र बातों से काम नहीं चल सकता समस्याओं का पहाड़ नहीं टल सकता कहना यह है कि....... आप कहते हैं आप वायदे निभायेंगे इसी तरह कब तलक बहकायेंगे झूठे सब्ज बागा दिखायेंगे जान लीजिए अब हम जान गये हैं आपकी बातों में न आयेंगे [...] More
  • सूरज की रौशनी पर कविता, गोविन्द व्यथित

    उस रोज उगने के साथ ही

    उस रोज उगने के साथ ही सूरज, अचानक फ्यूज हो गया अपने आस-पास घिरे अंधेरों से तंग आकर मैं ढूँढने लगा सूरज का कोई विकल्प तुम लोग ! इतमिनान रखो कोई न कोई हल निकलेगा जरूर वैसे क्यारियों में बो दिये हैं मैने चाँद और सूरज के बीज बीज पनपेंगे.... पौधे निकलेंगे.... बड़े होंगे, फलेंगे-फूलेंगे [...] More
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