खानाबदोश है कई इस जग में उजरी धरती पे,गदले नभ नीचे, वे ही बचा रहे एक सभ्यता अपने करारे कर्म की कुदाल चलाकर बचा रहे लुप्त होती एक विरासत को जी रहे उसूलो की छाया में, फटे पुराने खानदानी कबीलायाई तिरपाल को नये जमाने की आँधी तुफान से जख्मी होने से बचा रहे हैं, पुराने [...]
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खानाबदोश है कई इस जग में
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एक जिंदगी मैंने जी हैं
एक जिंदगी मैंने जी हैं उधेड़बुन से सीली कतरनों के रंग से जगमगाती हुई एक प्यास उधार ली हैं चकवे के होठों से चुराकर स्वाति नक्षत्र की बूँद झरने से पहले एक वेगमय भूख जी है उपवास के पेट में दौड़ती हुई ध्वनितमत डकार सें लिपटी हुई कई कोशिशें जी हैं साँप सीढ़ी के पटल [...] More -
गुमशुदा शहर का वाशिंदा
पिछली साल शहर की सड़को ने वादा किया मुझ से गाँव ले जाने का मगर सड़क खुद ब खुद ही कटकर वही खत्म हो गई शहर की युद्ध भूमि में मैं पड़ा रहा रक्त रंजित गाँव लेकर शहर की यादगार भूमि में गाँव का अकशुल यौद्धा बनकर शहर एक मतलबी टापू निकला जो बेमतलबी पानी... [...] More -
आदमी कहाँ लड़ता है, आजकल से
आदमी कहाँ लड़ता है, आजकल से, लड़ती हैं उसकी मजबूरियाँ बैचेन होकर छैनी-हथौड़ी लेकर हथेली की रेखाओं की बुनावट सें, परिंदे नहीं लड़ते हैं पेड़ो से गौर से देखो... लड़ रही हैं कुछ भूखी कुल्हाड़ियाँ पेड़ो के बदन से, आदमी भी नहीं लड़ता आदमी से कुछ बोतलें लड़ती बोतलों से खुद में नशा भरकर... चंद [...] More