रगे खू में क्या घुला क्या कहें हम जबाँ रख के बेजुबाँ क्यूं रहें हम जबाँ पर ताले लगे है ज़र्फ़ के कम ज़र्फ़ को कम ज़र्फ़ ना कहें हम उजाड़ा घर को सियासतगरों ने कहाँ जाकर बोलिये अब रहें हम मुनासिब ये तो नहीं हो सकेगा तमाशा देखा करे चुप रहे हम गुलाबों की [...]
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रगे खू में क्या
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और हम क्या-क्या
और हम क्या-क्या करें मुस्कराने के लिये घर हमने जला दिया जगमगाने के लिये दोस्ती वादे वफा सब फरेबों के भरे एक भी शय ना बची दिल लगाने के लिये आपमें हममें रहा फर्क ये सब से बड़ा आप हो अपने लिये हम ज़माने के लिये ना पता अपना हमें ना ज़माने की खबर याद [...] More -
कभी घर से बाहर
कभी घर से बाहर निकलकर तो देखो ज़माने से रिश्ता बनाकर तो देखो कहाँ जा रहे हो बचाकर ये दामन ज़रा पास आओ नज़र भर तो देखो बजायेंगे ताली सभी देखना तुम बहर में ग़ज़ल कोई कहकर तो देखो रकी़बों से मिलकर मिलेगा न कुछ भी रफीकों से दिल कुछ लगाकर तो देखो अंधरों ने [...] More -
दिल जो तुम से
दिल जो तुम से लगा नहीं होता ज़िन्दगी में मज़ा नहीं होता साथ जो छोड़ तुम चले जाते पास कुछ भी बचा नहीं होता दूरियाँ गर बड़ी नहीं होती दर्द क्या है पता नहीं होता कुछ तो तुमने उसे कहा होगा वरना वो यूँ ख़फा नहीं होता तोड़कर यार रिश्ते अपनों से कोई भी फायदा [...] More -
हर पल की तुम
हर पल की तुम बात न पूछो कैसे गज़री रात न पूछो बाहर सब कुछ सूखा सूखा अंदर की बरसात न पूछो जिसको सुन के पछताओगे तुम मुझसे वो बात न पूछो दुनिया से तो जीत रहा हूँ ख़ुद से ख़ुद की मात न पूछो साहिल पे ही डूब गए वो कैसे थे हालात न [...] More -
आदमी ख़ुद से
आदमी ख़ुद से मिला हो तो ग़ज़ल होती है ख़ुद से गर शिकवा गिला हो तो ग़ज़ल होती है अपने जज़्बात को लफ़्ज़ों में पिरोने वालो डूब कर शे'र कहा हो तो ग़ज़ल होती है - इरशाद अज़ीज़ इरशाद अज़ीज़ जी की ग़ज़ल इरशाद अज़ीज़ जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो [...] More -
शहरी आँधी में रमा,
शहरी आँधी में रमा, दूर हो गया गाँव । मीत! कहीं दीखे नहीं, पीपल बरगद छाँव।। पीपल बरगद छाँव, हाय! हुई एक सपना; अपना था रे गाँव, शहर हुआ नहीं अपना। अब जीवन की नाव, हमारी ठहरी ठहरी; कहने को हम मीत, जहाँ में बाबू शहरी।। - जगदीश तिवारी जगदीश तिवारी जी के छंद जगदीश [...] More -
अपनापन हँसता नहीं, रोते हैं सम्बन्ध
अपनापन हँसता नहीं, रोते हैं सम्बन्ध । प्रीत-प्यार क बीच में, ये कैसी दुर्गन्ध ।। ये कैसी दुर्गन्ध, समझ में बात न आई; चहुँ-दिश काली रात, समय कैसा ये भाई । सुनो! कहे जगदीश, रखो हिय अपना पावन; नाचेंगे सम्बन्ध, हँसेगा फिर अपनापन ।। - जगदीश तिवारी जगदीश तिवारी जी के छंद जगदीश तिवारी जी [...] More -
ख़ाक उड़ाते हुए ये म’अरका सर करना है
ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है इक न इक दिन हमें इस दश्त को घर करना है ये जो दीवार अँधेरों ने उठा रक्खी है मेरा मक़्सद इसी दीवार में दर करना है इस लिए सींचता रहता हूँ मैं अश्कों से उसे ग़म के पौदे को किसी रोज़ शजर करना है तेरी यादों [...] More