ख़ाक उड़ाते हुए ये म’अरका सर करना है इक न इक दिन हमें इस दश्त को घर करना है ये जो दीवार अँधेरों ने उठा रक्खी है मेरा मक़्सद इसी दीवार में दर करना है इस लिए सींचता रहता हूँ मैं अश्कों से उसे ग़म के पौदे को किसी रोज़ शजर करना है तेरी यादों का सहारा भी नहीं है मंज़ूर उम्र भर हम को अकेले ही सफ़र करना है – अज़्म शाकरी अज़्म शाकरी जी की ग़ज़ल अज़्म शाकरी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
ख़ाक उड़ाते हुए ये म’अरका सर करना है
ख़ाक उड़ाते हुए ये म’अरका सर करना है
इक न इक दिन हमें इस दश्त को घर करना है
ये जो दीवार अँधेरों ने उठा रक्खी है
मेरा मक़्सद इसी दीवार में दर करना है
इस लिए सींचता रहता हूँ मैं अश्कों से उसे
ग़म के पौदे को किसी रोज़ शजर करना है
तेरी यादों का सहारा भी नहीं है मंज़ूर
उम्र भर हम को अकेले ही सफ़र करना है
– अज़्म शाकरी
अज़्म शाकरी जी की ग़ज़ल
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