वक्त के खूँटे से बाँधा मोह की जंजीर ने । मुग्ध होकर मैं बँधा ज्यों बाँध रक्खा हीर ने ।। ना मुझे शिकवा शिकायत ना ही मुझको चैन है । भेद मैं कैसे बताऊँ वार है या रैन है ।। खोलकर दिल रख दिया मैनें जो उनके सामने । भीम को धृतराष्ट्र बनकर वो लगे थे थामने ।। बस भरोसा ही छला जाता रहा हर काल में । कौन बच पाया भला फँसने से, फेंके जाल में ।। प्यार उनका तीर सा मेरे कलेजे में चुभा । किन्तु इसके बाद भी ये दिल मेरा उनपर लुभा ।। कब समझ पाओगे बोलो ऐ अवध तुम वक्त को । धो रहे अपने पराये सारे नूनो – रक्त को ।। – अवधेश कुमार ‘अवध’ अवधेश कुमार 'अवध' जी की कविता अवधेश कुमार 'अवध' जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
वक्त के खूँटे से बाँधा
वक्त के खूँटे से बाँधा मोह की जंजीर ने ।
मुग्ध होकर मैं बँधा ज्यों बाँध रक्खा हीर ने ।।
ना मुझे शिकवा शिकायत ना ही मुझको चैन है ।
भेद मैं कैसे बताऊँ वार है या रैन है ।।
खोलकर दिल रख दिया मैनें जो उनके सामने ।
भीम को धृतराष्ट्र बनकर वो लगे थे थामने ।।
बस भरोसा ही छला जाता रहा हर काल में ।
कौन बच पाया भला फँसने से, फेंके जाल में ।।
प्यार उनका तीर सा मेरे कलेजे में चुभा ।
किन्तु इसके बाद भी ये दिल मेरा उनपर लुभा ।।
कब समझ पाओगे बोलो ऐ अवध तुम वक्त को ।
धो रहे अपने पराये सारे नूनो – रक्त को ।।
– अवधेश कुमार ‘अवध’
अवधेश कुमार 'अवध' जी की कविता
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