Tag Archives: अज़्म शाकरी

  • ख़ाक उड़ाते हुए ये म’अरका सर करना है

    ख़ाक उड़ाते हुए ये म'अरका सर करना है इक न इक दिन हमें इस दश्त को घर करना है ये जो दीवार अँधेरों ने उठा रक्खी है मेरा मक़्सद इसी दीवार में दर करना है इस लिए सींचता रहता हूँ मैं अश्कों से उसे ग़म के पौदे को किसी रोज़ शजर करना है तेरी यादों [...] More
  • रिश्ते बनाये रखो, अज़्म शाकरी

    जो बच गए हैं चराग़ उन को बचाए रक्खो

    जो बच गए हैं चराग़ उन को बचाए रक्खो मैं जानता हूँ हवा से रिश्ता बनाए रक्खो ज़रूर उतरेगा आसमाँ से कोई सितारा ज़मीन वालो ज़मीं पे पलकें बिछाए रक्खो अभी वहीं से किसी के ग़म की सदा उठेगी उसी दरीचे पे कान अपने लगाए रखो हमेशा ख़ुद से भी पुर-तकल्लुफ़ रहो तो अच्छा ख़ुद [...] More
  • ज़िन्दगी के पहलू पर ग़ज़ल, अज़्म शाकरी

    जितना तेरा हुक्म था उतनी सँवारी ज़िंदगी

    जितना तेरा हुक्म था उतनी सँवारी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से कहाँ हम ने गुज़ारी ज़िंदगी मेरे अंदर इक नया ग़म रोज़ रख जाता है कौन रफ़्ता रफ़्ता हो रही है और भारी ज़िंदगी रूह की तस्कीन के सारे दरीचे खुल गए दर्द के पहलू में जब आई हमारी ज़िंदगी सिर्फ़ थी ख़ाना-बदोशी या मोहब्बत का [...] More
  • नज़र पर ग़ज़ल, अज़्म शाकरी

    घर में चाँदी के कोई सोने के दर रख जाएगा

    घर में चाँदी के कोई सोने के दर रख जाएगा वो मिरे चश्मे में जब अपनी नज़र रख जाएगा क़ैद कर ले जाएगा नींदों की सारी काएनात हाँ मगर पलकों पे कुछ सच्चे गुहर रख जाएगा सारे दुख सो जाएँगे लेकिन इक ऐसा ग़म भी है जो मिरे बिस्तर पे सदियों का सफ़र रख जाएगा [...] More
  • आग ऐसी लगी ग़ज़ल, अज़्म शाकरी

    दिल में हसरत कोई बची ही नहीं

    दिल में हसरत कोई बची ही नहीं आग ऐसी लगी बुझी ही नहीं उस ने जब ख़ुद को बे-नक़ाब किया फिर किसी की नज़र उठी ही नहीं जैसा इस बार खुल के रोए हम ऐसी बारिश कभी हुई ही नहीं ज़िंदगी को गले लगाते क्या ज़िंदगी उम्र-भर मिली ही नहीं मुंतज़िर कब से चाँद छत [...] More
  • पैगाम ए वफ़ा पर ग़ज़ल, अज़्म शाकरी

    दरवाज़ा-ए-हस्ती

    दरवाज़ा-ए-हस्ती से न इम्लाक से निकला पैग़ाम-ए-वफ़ा ख़ुश्बू-ए-इदराक से निकला फिर आज कुरेदी गई वो ख़ाक-ए-नशेमन फिर गौहर-ए-मक़्सूद उसी ख़ाक से निकला हर बार मुझे मेरे मुक़द्दर ने सदा दी जब भी कोई तारा दर-ए-अफ़्लाक से निकला इस बार तो मजनूँ का भरम भी नहीं रक्खा यूँ मेरा जुनूँ पैरहन-ए-चाक से निकला दुनिया की ज़बानों [...] More
  • तुम्हारी चाह पर ग़ज़ल, अज़्म शाकरी

    दरीदा-पैरहनों में शुमार हम भी हैं

    दरीदा-पैरहनों में शुमार हम भी हैं बहुत दिनों से अना के शिकार हम भी हैं फ़क़त तुम्हीं को नहीं इश्क़ में ये दर-बदरी तुम्हारी चाह में गर्द-ओ-ग़ुबार हम भी हैं चढ़ी जो धूप तो होश-ओ-हवास खो बैठे जो कह रहे थे शजर साया-दार हम भी हैं बुलंदियों के निशाँ तक न छू सके वो लोग [...] More
  • रौशनी फैलती ग़ज़ल, अज़्म शाकरी

    चाहता ये हूँ कि

    चाहता ये हूँ कि बेनाम-ओ-निशाँ हो जाऊँ शम्अ' की तरह जलूँ और धुआँ हो जाऊँ पहले दहलीज़ पे रौशन करूँ आँखों के चराग़ और फिर ख़ुद किसी पर्दे में निहाँ हो जाऊँ तोड़ कर फेंक दूँ ये फ़िरक़ा-परस्ती के महल और पेशानी पे सज्दे का निशाँ हो जाऊँ दिल से फिर दर्द महकने की सदाएँ [...] More
  • चाँद सा चेहरा

    चाँद सा चेहरा कुछ इतना बेबाक हुआ एक ही पल में शब का दामन चाक हुआ घर के अंदर सीधे सच्चे लोग मिले बेटा परदेसी हो कर चालाक हुआ दरवाज़ों की रातें चौकीदार हुईं और उजाला जिस्मों की पोशाक हुआ जो आया इक दाग़ लगा कर चला गया उस ने छुआ तो मेरा दामन पाक [...] More
Updating
  • No products in the cart.