दरीदा-पैरहनों में शुमार हम भी हैं बहुत दिनों से अना के शिकार हम भी हैं फ़क़त तुम्हीं को नहीं इश्क़ में ये दर-बदरी तुम्हारी चाह में गर्द-ओ-ग़ुबार हम भी हैं चढ़ी जो धूप तो होश-ओ-हवास खो बैठे जो कह रहे थे शजर साया-दार हम भी हैं बुलंदियों के निशाँ तक न छू सके वो लोग जिन्हें गुमाँ था हवा पे सवार हम भी हैं जो ख़स्ता-हाली में दरवेश का मुक़द्दर थी उसी क़बा की तरह तार-तार हम भी हैं – अज़्म शाकरी अज़्म शाकरी जी की ग़ज़ल अज़्म शाकरी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
दरीदा-पैरहनों में शुमार हम भी हैं
दरीदा-पैरहनों में शुमार हम भी हैं
बहुत दिनों से अना के शिकार हम भी हैं
फ़क़त तुम्हीं को नहीं इश्क़ में ये दर-बदरी
तुम्हारी चाह में गर्द-ओ-ग़ुबार हम भी हैं
चढ़ी जो धूप तो होश-ओ-हवास खो बैठे
जो कह रहे थे शजर साया-दार हम भी हैं
बुलंदियों के निशाँ तक न छू सके वो लोग
जिन्हें गुमाँ था हवा पे सवार हम भी हैं
जो ख़स्ता-हाली में दरवेश का मुक़द्दर थी
उसी क़बा की तरह तार-तार हम भी हैं
– अज़्म शाकरी
अज़्म शाकरी जी की ग़ज़ल
अज़्म शाकरी जी की रचनाएँ
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