पावन हिमगिरि उतगं श्रृंग पर,
धवल हिम अति जमते देखा ।
जीवन सचिंत निज अंको मे,
दिनकर रश्मि चमकते देखा ।
दिव्य दृश्य अति पावन लौकिक,
चॉदी भू को धरते देखा,
उष्ण ताप अति तृष्ण अनल से,
हिमगिरि हिम पिघलते देखा ।
चला ठोस अब द्रव रुप धारित,
स्वर्ग से थरा उतरते देखा ।
कोमल सरगम संगीतों को,
पत्थर से टकराते देखा ।
जैसै-तैसै गीरतें पड़ते,
सहकर कष्ट सम्हलते देखा ।
धारित रूप धरा सरिता का,
कल-कल निर्मल बहते देखा ।
खा-खा ठोकर पाषाणों से,
परहित आगे बढते देखा ।
अपने पथ को निर्मित कर-कर,
खॉई-खोह गुजरते देखा ।
ऑचल मेंजीवन की धारा,
खाली खेत को भरते देखा ।
जड़ी बूटी से कर समझौता,
संतानों घर भरते देखा ।
सदा प्रवाही धाराओं को,
ये सुरंग में जाते देखा ।
प्रवल प्रवाहित जीवन धारा,
वृहद् बॅाध को बनते देखा ।
अविरल सदा वहित धारा अब,
सुरंग कुरग में जाते देखा ।
बेटों के कुछ कूतर्कों से,
मॅा का ऑचल बंटते देखा ।
स्वार्थ बिजनेस मॅा से सौदा,
फिर बिजली को बनते देखा ।
कूड़ा करकट मैला मरघट,
विष प्रवाह भी करते देखा ।
“गंगा तेर पानी अमृत ”
गीत “विनोदी “गाते देखा ।
पावन हिमगिरि उतगं श्रृंग पर
पावन हिमगिरि उतगं श्रृंग पर,
धवल हिम अति जमते देखा ।
जीवन सचिंत निज अंको मे,
दिनकर रश्मि चमकते देखा ।
दिव्य दृश्य अति पावन लौकिक,
चॉदी भू को धरते देखा,
उष्ण ताप अति तृष्ण अनल से,
हिमगिरि हिम पिघलते देखा ।
चला ठोस अब द्रव रुप धारित,
स्वर्ग से थरा उतरते देखा ।
कोमल सरगम संगीतों को,
पत्थर से टकराते देखा ।
जैसै-तैसै गीरतें पड़ते,
सहकर कष्ट सम्हलते देखा ।
धारित रूप धरा सरिता का,
कल-कल निर्मल बहते देखा ।
खा-खा ठोकर पाषाणों से,
परहित आगे बढते देखा ।
अपने पथ को निर्मित कर-कर,
खॉई-खोह गुजरते देखा ।
ऑचल मेंजीवन की धारा,
खाली खेत को भरते देखा ।
जड़ी बूटी से कर समझौता,
संतानों घर भरते देखा ।
सदा प्रवाही धाराओं को,
ये सुरंग में जाते देखा ।
प्रवल प्रवाहित जीवन धारा,
वृहद् बॅाध को बनते देखा ।
अविरल सदा वहित धारा अब,
सुरंग कुरग में जाते देखा ।
बेटों के कुछ कूतर्कों से,
मॅा का ऑचल बंटते देखा ।
स्वार्थ बिजनेस मॅा से सौदा,
फिर बिजली को बनते देखा ।
कूड़ा करकट मैला मरघट,
विष प्रवाह भी करते देखा ।
“गंगा तेर पानी अमृत ”
गीत “विनोदी “गाते देखा ।
– डॅा विनोद “कैमूरी”
डॉ. विनोद कुमार मिश्र ‘कैमूरी’ जी की रचनाएँ
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