जिंदगी मजबूरियो के सांचे मे ढलती रही, उम्मीद सब हमारी इक खांचे मे डलती रही। मेरे आंगन में भी धूप सुनहरी निकली मगर, साथ मे बादलों की साजिशे भी चलती रही। मेरी गलती की सजा मैं खुद को देता मगर, ये जिंदगी हर दफा अपने बयान बदलती रही। सियासत के इन मुंसिफो पर मैं यकीं करूँ कैसे? अब तक मुझे बस पेशियों पर पेशियां मिलती रही। मिल जाए कही एक सुकून भरा किनारा हमे भी, तलाश मे समंदर की सांसे लहर लहर चलती रही। – पी एल बामनिया पी एल बामनिया जी की हालत से मजबूर पर कविता पी एल बामनिया जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
जिंदगी मजबूरियो के सांचेे मे ढलती रही
जिंदगी मजबूरियो के सांचे मे ढलती रही,
उम्मीद सब हमारी इक खांचे मे डलती रही।
मेरे आंगन में भी धूप सुनहरी निकली मगर,
साथ मे बादलों की साजिशे भी चलती रही।
मेरी गलती की सजा मैं खुद को देता मगर,
ये जिंदगी हर दफा अपने बयान बदलती रही।
सियासत के इन मुंसिफो पर मैं यकीं करूँ कैसे?
अब तक मुझे बस पेशियों पर पेशियां मिलती रही।
मिल जाए कही एक सुकून भरा किनारा हमे भी,
तलाश मे समंदर की सांसे लहर लहर चलती रही।
– पी एल बामनिया
पी एल बामनिया जी की हालत से मजबूर पर कविता
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