मैं हूँ व्यथा का बोझ सखी तू फुलवारी कोमल उपवन की । मैं बोली चट्टानों जैसी तू भाषा गिरते सावन की ।। मैं लघु की हूँ जटिल बनावट तू वृहद का सीधापन है पोलापन हूँ मैं अम्बर का तू जगती का स्वर्णिम कण है ।। मैं दिग्भ्रान्त अनन्त प्रिये तू वसुधा है अमृत मंथन की मैं बोली चट्टानों जैसी ……..।। मैं अक्षर बिखरा बिखरा सा शब्द कोष तू सुख सागर का तू उर्मि सिंधु जीवन की मैं जल सिमटा हूँ गागर का ।। आदिम युग सी लिपि मेरी और लिपि तू मलय नयन की मैं बोली चट्टानो जैसी तू भाषा………..।। मैं अंधियारा गहन विभा का तू उगते सूरज की लाली मैं विषाद कलुषित जीवन का तू उज्जवल शुचिता शैफाली ।। मैं प्रकाश का भेद अलि तू दिव्य ज्योति है अंतर्मन की मैं बोली चट्टानों जैसी, तू भाषा गिरते सावन की ।। – डॉ. जय वैरागी डॉ. जय वैरागी जी की कविता डॉ. जय वैरागी जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
मैं हूँ व्यथा का बोझ सखी
मैं हूँ व्यथा का बोझ सखी तू फुलवारी कोमल उपवन की ।
मैं बोली चट्टानों जैसी तू भाषा गिरते सावन की ।।
मैं लघु की हूँ जटिल बनावट तू वृहद का सीधापन है
पोलापन हूँ मैं अम्बर का तू जगती का स्वर्णिम कण है ।।
मैं दिग्भ्रान्त अनन्त प्रिये तू वसुधा है अमृत मंथन की
मैं बोली चट्टानों जैसी ……..।।
मैं अक्षर बिखरा बिखरा सा शब्द कोष तू सुख सागर का
तू उर्मि सिंधु जीवन की मैं जल सिमटा हूँ गागर का ।।
आदिम युग सी लिपि मेरी और लिपि तू मलय नयन की
मैं बोली चट्टानो जैसी तू भाषा………..।।
मैं अंधियारा गहन विभा का तू उगते सूरज की लाली
मैं विषाद कलुषित जीवन का तू उज्जवल शुचिता शैफाली ।।
मैं प्रकाश का भेद अलि तू दिव्य ज्योति है अंतर्मन की
मैं बोली चट्टानों जैसी, तू भाषा गिरते सावन की ।।
– डॉ. जय वैरागी
डॉ. जय वैरागी जी की कविता
डॉ. जय वैरागी जी की रचनाएँ
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