कहने को तो सब अपने हैं अपनो जैसा प्यार मिला है | अपनेपन से भरा हुआ हो ऐसा नहीं विचार मिला है | जीवन की इस दोपहरी में घटा अमावस की छायी है | गलियारे में चाँद खड़ा है सहमी सहमी परछाई है | अंधेरे में कैद रोशनी आसू भरी कथा कहती है | एक किरन की आशा लेकर कितनी कठिन व्यथा सहती है | जाने कौन घड़ी ऐसी हो एक बूंद मोती बन जाये | जाने कैसी चिनगारी हो पलभर में जोती बन जाये | भर जाती हैं सभी रिक्तियाँ जीवन मरुस्थल सार हो गया | एकाकी पन सिमट गया फिर साँस साँस श्रृंगार हो गया | नैनों में अभिसार भर गया प्रानों में संचार भर गया | एक एक पल मोह बन गया हर पल मधुमय प्यार बन गया | कहाँ गया इतिहास हमारा जननी जन्म भूमि का प्यार | सुषमा का सागर लहराता हिम किरीट का वह श्रृंगार | सारी बसुधा की कुटुम्बवत और आत्पवत थे सब जन | आखर आखर प्रेम भरा का रस परिपूरित था तन मन | सभी साध अन्तर में बन्दी कसी बेड़ियाँ खनक रहीं | कितनी उष्मा किससे कह दूँ अन्तर ज्वाला दहक रही है | धुंधला धुंधला चाँद दिख रहा हर चेहरा घबराया सा | तारे सब वीमार दीखते हर काजल शरमाया सा | विषधर डसने को आकुल है रोम रोम क्यों सिहर रहा है | अनजाने भय से पागल मन पग पग पर ही विखर रहा है | दूर कहीं से परदेशी की यादों का मधुगान उठा है | एक एक पल की बातों से सपनों का उन्मान जगा है | – देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’ देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
कहने को तो सब अपने हैं
कहने को तो सब अपने हैं
अपनो जैसा प्यार मिला है |
अपनेपन से भरा हुआ हो
ऐसा नहीं विचार मिला है |
जीवन की इस दोपहरी में
घटा अमावस की छायी है |
गलियारे में चाँद खड़ा है
सहमी सहमी परछाई है |
अंधेरे में कैद रोशनी
आसू भरी कथा कहती है |
एक किरन की आशा लेकर
कितनी कठिन व्यथा सहती है |
जाने कौन घड़ी ऐसी हो
एक बूंद मोती बन जाये |
जाने कैसी चिनगारी हो
पलभर में जोती बन जाये |
भर जाती हैं सभी रिक्तियाँ
जीवन मरुस्थल सार हो गया |
एकाकी पन सिमट गया फिर
साँस साँस श्रृंगार हो गया |
नैनों में अभिसार भर गया
प्रानों में संचार भर गया |
एक एक पल मोह बन गया
हर पल मधुमय प्यार बन गया |
कहाँ गया इतिहास हमारा
जननी जन्म भूमि का प्यार |
सुषमा का सागर लहराता
हिम किरीट का वह श्रृंगार |
सारी बसुधा की कुटुम्बवत
और आत्पवत थे सब जन |
आखर आखर प्रेम भरा का
रस परिपूरित था तन मन |
सभी साध अन्तर में बन्दी
कसी बेड़ियाँ खनक रहीं |
कितनी उष्मा किससे कह दूँ
अन्तर ज्वाला दहक रही है |
धुंधला धुंधला चाँद दिख रहा
हर चेहरा घबराया सा |
तारे सब वीमार दीखते
हर काजल शरमाया सा |
विषधर डसने को आकुल है
रोम रोम क्यों सिहर रहा है |
अनजाने भय से पागल मन
पग पग पर ही विखर रहा है |
दूर कहीं से परदेशी की
यादों का मधुगान उठा है |
एक एक पल की बातों से
सपनों का उन्मान जगा है |
– देवेन्द्र कुमार सिंह ‘दददा’
देवेंद्र कुमार सिंह दद्दा जी की रचनाएँ
[simple-author-box]
अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें