मोहताज़ दाने दाने को होता रहा किसान। बंजर ज़मीं में ख्वाब को बोता रहा किसान।। सरकार हो किसी भी धोखा ही है मिला, लाचारियों को अपनी वो ढोता रहा किसान। सूखा पड़ा कभी तो, कभी बाढ़ आ गयी, बर्बाद इस तरह से भी होता रहा किसान। बेटी हुई जवान तो सर उसका झुक गया, बेबस हुआ गरीबी से रोता रहा किसान। कर्ज़ा हुआ तो मौत की आगोश में गया, अपनी ही लाश कान्धे पे ढोता रहा किसान। अच्छी फ़सल हुई, तो मिले दाम कम उसे, नीलाम इस तरह से भी होता रहा किसान। कहते हैं अन्नदाता जिसे हम सभी ‘निशा’, सबको खिलाता भूख में सोता रहा किसान। – डॉ नसीमा निशा डॉ. नसीमा निशा जी की ग़ज़ल डॉ. नसीमा निशा जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
मोहताज़ दाने दाने को
मोहताज़ दाने दाने को होता रहा किसान।
बंजर ज़मीं में ख्वाब को बोता रहा किसान।।
सरकार हो किसी भी धोखा ही है मिला,
लाचारियों को अपनी वो ढोता रहा किसान।
सूखा पड़ा कभी तो, कभी बाढ़ आ गयी,
बर्बाद इस तरह से भी होता रहा किसान।
बेटी हुई जवान तो सर उसका झुक गया,
बेबस हुआ गरीबी से रोता रहा किसान।
कर्ज़ा हुआ तो मौत की आगोश में गया,
अपनी ही लाश कान्धे पे ढोता रहा किसान।
अच्छी फ़सल हुई, तो मिले दाम कम उसे,
नीलाम इस तरह से भी होता रहा किसान।
कहते हैं अन्नदाता जिसे हम सभी ‘निशा’,
सबको खिलाता भूख में सोता रहा किसान।
– डॉ नसीमा निशा
डॉ. नसीमा निशा जी की ग़ज़ल
डॉ. नसीमा निशा जी की रचनाएँ
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