साए को तरसता शज़र देखा, कतरे को मचलता समंदर देखा। गुज़रे जमाने का ज़खीरा मिला, झाँक कर जब खुद के अंदर देखा। ज़माने मे हमने उल्टा मंजर देखा, मदारी को नचाता बंदर देखा। लबों पर झरते थे फूल जिसके, उसके दिल मे छुपा खंजर देखा। जिनके घर दौलत की फसल उगी, उनका दिल बडा ही बंजर देखा। मान मनुहार साम दाम दंड भेद सब, चुनावो मे इक से बढ इक मंज़र देखा। खूब दौड रही जाति मजहब की गाडिया, बस इक विकास का पहिया पंचर देखा। – पी एल बामनिया पी एल बामनिया जी की कविता पी एल बामनिया जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
साए को तरसता
साए को तरसता शज़र देखा,
कतरे को मचलता समंदर देखा।
गुज़रे जमाने का ज़खीरा मिला,
झाँक कर जब खुद के अंदर देखा।
ज़माने मे हमने उल्टा मंजर देखा,
मदारी को नचाता बंदर देखा।
लबों पर झरते थे फूल जिसके,
उसके दिल मे छुपा खंजर देखा।
जिनके घर दौलत की फसल उगी,
उनका दिल बडा ही बंजर देखा।
मान मनुहार साम दाम दंड भेद सब,
चुनावो मे इक से बढ इक मंज़र देखा।
खूब दौड रही जाति मजहब की गाडिया,
बस इक विकास का पहिया पंचर देखा।
– पी एल बामनिया
पी एल बामनिया जी की कविता
पी एल बामनिया जी की रचनाएँ
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