तन पर लपेटे फटे चिथडे़, नँगे-पैर वह चला जाता है। जाडे़ की बेदर्द हवाओ से वह, अपना बदन छिपाता जाता है। नही माँगता सूरज से धूप, वह तो छिप गया बादलो की ओट। कोहरे की काली-घनी चादर में, ढूँढ रहा कोई फटा पूराना कोट। देखकर सूरज की ओर वह, सेंक रहा वह अपनी काली-काया। मदम-मदम उसकी रोशनी भी, कर रही बारबार शीतल छाया।। थर्र-थर्र, थर्र-थर्र काँप रहा बदन, कैसे करे अब कोई वह जतन। तभी जला कोई अलाव वहाँ पर, देने लगी ताप उसकी गरम अगन। कठिनाईयों से जीने वालो की, खुब अग्न-परिक्षाएँ होती है । कभी गर्मी, कभी जाडे की मार, तन-बदन को गला, जला करती है। हे, नियति मे जिनके सँघर्ष तो, हर हाल मे वो लडा़ करते है। क्या सर्दी, क्या गर्मी और वर्षा, वो तो तूफानो से भी लड़ा करते है। – हेमलता पालीवाल “हेमा” हेमलता पालीवाल "हेमा" जी की रचनाएँ [simple-author-box] अगर आपको यह रचना पसंद आयी हो तो इसे शेयर करें
तन पर लपेटे
तन पर लपेटे फटे चिथडे़,
नँगे-पैर वह चला जाता है।
जाडे़ की बेदर्द हवाओ से वह,
अपना बदन छिपाता जाता है।
नही माँगता सूरज से धूप,
वह तो छिप गया बादलो की ओट।
कोहरे की काली-घनी चादर में,
ढूँढ रहा कोई फटा पूराना कोट।
देखकर सूरज की ओर वह,
सेंक रहा वह अपनी काली-काया।
मदम-मदम उसकी रोशनी भी,
कर रही बारबार शीतल छाया।।
थर्र-थर्र, थर्र-थर्र काँप रहा बदन,
कैसे करे अब कोई वह जतन।
तभी जला कोई अलाव वहाँ पर,
देने लगी ताप उसकी गरम अगन।
कठिनाईयों से जीने वालो की,
खुब अग्न-परिक्षाएँ होती है ।
कभी गर्मी, कभी जाडे की मार,
तन-बदन को गला, जला करती है।
हे, नियति मे जिनके सँघर्ष तो,
हर हाल मे वो लडा़ करते है।
क्या सर्दी, क्या गर्मी और वर्षा,
वो तो तूफानो से भी लड़ा करते है।
– हेमलता पालीवाल “हेमा”
हेमलता पालीवाल "हेमा" जी की रचनाएँ
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